कभी मोहल्ले के मैदान बच्चों की हंसी, खेल और शोरगुल से गुलजार रहा करते थे। क्रिकेट की गेंदें हवा में उछलती थीं, लुका-छिपी की चहल-पहल गूंजती थी, और हर कोने में बचपन की मासूमियत बिखरी रहती थी। लेकिन आज वही मैदान सूने पड़े हैं, जैसे समय ने वहां से जीवन की रौनक छीन ली हो। लखनऊ हाईकोर्ट के अधिवक्ता अखण्ड कुमार पांडेय इस बदलाव को गहरी चिंता के साथ देखते हैं। TarangVoice.com के माध्यम से वे इस गंभीर मुद्दे को समाज के सामने लाते हैं, जहां मोबाइल फोन बच्चों के बचपन को धीरे-धीरे स्क्रीन की चमक में समेट रहा है।
मोबाइल: बचपन का नया “खिलौना”
एक समय था जब मोबाइल फोन केवल “बड़ों की चीज” माना जाता था। लेकिन आज यह बच्चों का सबसे प्रिय “खिलौना” बन चुका है। सुबह से शाम तक बच्चे गेम्स, सोशल मीडिया, और वीडियो में खोए रहते हैं। अखण्ड कुमार पांडेय कहते हैं, “मोबाइल ने न केवल बच्चों के मैदान छीने, बल्कि उनकी दोस्ती, दौड़, और खुली हवा में खेलने की आजादी भी छीन ली है।” माता-पिता, व्यस्त जीवनशैली में, बच्चों को शांत रखने के लिए मोबाइल थमा देते हैं, जो एक आसान समाधान तो है, लेकिन दीर्घकालिक नुकसान का कारण बन रहा है।
मैदान से स्क्रीन तक: खोता बचपन
पहले बच्चे मैदानों में दौड़ते थे, पेड़ों पर चढ़ते थे, और दोस्तों के साथ हंसी-मजाक में समय बिताते थे। लेकिन आज उनकी दुनिया एक छोटी सी स्क्रीन तक सिमट गई है। पबजी फ्री फायर, और टिकटॉक जैसे ऐप्स ने उनकी रचनात्मकता और सामाजिकता को सीमित कर दिया है। बच्चे अब न तो बाहर खेलने जाते हैं और न ही पड़ोसियों से जुड़ते हैं। इसका परिणाम है सामाजिक अलगाव, कमज़ोर रिश्ते, और एक खोया हुआ बचपन।
शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर खतरा
बचपन में खेलकूद केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि शारीरिक और मानसिक विकास की आधारशिला है। मैदानों में दौड़ने-खेलने से बच्चों में सहनशीलता,टीम भावना, और हार-जीत का संतुलन विकसित होता है। लेकिन मोबाइल की लत ने बच्चों को स्थिर और असामाजिक बना दिया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, बच्चों में स्क्रीन टाइम बढ़ने से निम्नलिखित समस्याएं बढ़ रही हैं:
मोटापा: शारीरिक गतिविधियों की कमी से मोटापा और मधुमेह का खतरा।
चिड़चिड़ापन और तनाव: लंबे समय तक स्क्रीन देखने से मानसिक स्वास्थ्य पर असर।
नींद की कमी: रात में मोबाइल उपयोग से अनिद्रा और एकाग्रता में कमी।
आंखों की समस्याएं: स्क्रीन की नीली रोशनी से दृष्टि पर नकारात्मक प्रभाव।
समाधान: संतुलन और जागरूकता की ज़रूरत
मोबाइल की लत सिर्फ तकनीक की समस्या नहीं, बल्कि हमारी सोच और जीवनशैली का परिणाम है। अखण्ड कुमार पांडेय कहते हैं, “हमें बच्चों के जीवन में संतुलन लाना होगा। मोबाइल को पूरी तरह हटाना जरूरी नहीं, लेकिन इसका सीमित और रचनात्मक उपयोग अनिवार्य है।” निम्नलिखित उपाय इस दिशा में मदद कर सकते हैं:
- माता-पिता की भूमिका: बच्चों के साथ समय बिताएं, उन्हें बाहर खेलने के लिए प्रेरित करें। सप्ताहांत पर पार्क या खेल के मैदान ले जाएं।
- स्कूलों में खेल को प्राथमिकता: स्कूलों को पढ़ाई के साथ-साथ खेलकूद को बराबर महत्व देना चाहिए। फिजिकल एजुकेशन को अनिवार्य करें।
- स्क्रीन टाइम सीमित करें: बच्चों के लिए प्रतिदिन 1-2 घंटे से अधिक स्क्रीन टाइम न हो। Parental Control Apps जैसे Google Family Link का उपयोग करें।
- जागरूकता अभियान: सामुदायिक स्तर पर बच्चों और अभिभावकों को मोबाइल की लत के खतरों के बारे में शिक्षित करें। सामाजिक प्रभाव: एक खोया हुआ बचपन
सूने पड़े मैदान केवल एक दृश्य नहीं, बल्कि हमारे समाज का बदलता चेहरा हैं। बच्चे, जो समाज का भविष्य हैं, यदि स्क्रीन की चमक में खो जाएंगे, तो हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक नींव कमजोर होगी। मैदानों में खेलने से बच्चे न केवल शारीरिक रूप से स्वस्थ रहते हैं, बल्कि उनमें सहानुभूति, नेतृत्व, और सामाजिकता जैसे गुण भी विकसित होते हैं।
मैदानों को फिर से गुलज़ार करें
अखण्ड कुमार पांडेय का यह सवाल “मेरे पड़ोस का मैदान खाली पड़ा है…”हम सभी के लिए एक चेतावनी है। हमें यह तय करना होगा कि हम अपनी अगली पीढ़ी को क्या देना चाहते हैं: मैदानों में हंसी-खुशी बिताया गया स्वस्थ बचपन, या मोबाइल स्क्रीन में सिमटा हुआ एकाकी जीवन। TarangVoice.com के माध्यम से हम समाज से अपील करते हैं कि बच्चों को मैदानों की ओर लौटाएं, उनकी हंसी को फिर से गूंजने दें, और बचपन को मोबाइल की कैद से आज़ाद करें।