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 परिषदीय स्कूलों का मर्जर: शिक्षकों की चिंता और शिक्षा व्यवस्था पर सवाल

उत्तर प्रदेश के परिषदीय स्कूलों में हाल के वर्षों में मर्जर की प्रक्रिया ने शिक्षकों, अभिभावकों और नीति निर्माताओं के बीच एक गहन बहस छेड़ दी है। बेसिक शिक्षा विभाग द्वारा 50 से कम छात्रों वाले प्राथमिक और उच्च प्राथमिक स्कूलों को बंद करने और उन्हें नजदीकी स्कूलों में मर्ज करने का निर्णय लिया गया है। यह निर्णय जहाँ एक ओर छात्र-शिक्षक अनुपात को संतुलित करने और संसाधनों के उपयोग को बेहतर बनाने के उद्देश्य से लिया गया है, वहीं दूसरी ओर यह शिक्षकों के लिए चिंता का विषय बन गया है। इस लेख में हम इस मर्जर की प्रक्रिया, इसके पीछे के कारण, शिक्षकों पर प्रभाव, और निजीकरण की आशंकाओं पर लखनऊ हाईकोर्ट के अधिवक्ता अंखड पांडेय ने विस्तार से बताया है, जानते है क्या है पूरा मामला।

परिषदीय स्कूलों की स्थिति और मर्जर का कारण

अधिवक्ता अखंड पांडेय के मुताबिक उत्तर प्रदेश में परिषदीय स्कूल मुख्य रूप से उन गरीब और वंचित परिवारों के बच्चों के लिए शिक्षा का आधार हैं, जिनके पास निजी स्कूलों की मोटी फीस वहन करने की क्षमता नहीं है। इन स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकांश बच्चे मिड डे मील योजना के तहत मुफ्त भोजन और मुफ्त शिक्षा के लिए आते हैं। हालाँकि, कई स्कूलों में छात्रों की संख्या 50 से कम हो गई है, जिसके कारण सरकार ने इन्हें बंद करने और नजदीकी स्कूलों में मर्ज करने का फैसला किया है।)

इसके पीछे मुख्य तर्क छात्र-शिक्षक अनुपात को बनाए रखना है। बेसिक शिक्षा विभाग के अनुसार, कम छात्रों वाले स्कूलों में शिक्षकों की तैनाती अनावश्यक संसाधनों का खर्च है। सरकार का मानना है कि मर्जर से स्कूलों में संसाधनों का बेहतर उपयोग होगा और शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार आएगा। लेकिन इस निर्णय ने कई सवाल खड़े किए हैं, खासकर शिक्षकों की नौकरी और ग्रामीण बच्चों की शिक्षा के भविष्य को लेकर।

शिक्षकों की चिंता: मर्जर का असली दुख

परिषदीय स्कूलों के मर्जर से बच्चों को तो नजदीकी स्कूलों में प्रवेश दे दिया जाएगा, लेकिन शिक्षकों की नियुक्ति को लेकर असमंजस की स्थिति है। मर्जर के बाद स्कूलों में छात्र-शिक्षक अनुपात के आधार पर शिक्षकों की तैनाती होगी। इसका मतलब है कि यदि दो स्कूल मर्ज होते हैं, तो नए स्कूल में केवल उतने ही शिक्षकों की जरूरत होगी, जितने छात्रों की संख्या के हिसाब से आवश्यक हों। बचे हुए *सरप्लस शिक्षकों* को उन स्कूलों में स्थानांतरित किया जाएगा, जहाँ शिक्षकों की कमी है।

इस प्रक्रिया ने शिक्षकों में असुरक्षा की भावना पैदा कर दी है। उत्तर प्रदेश प्राथमिक शिक्षक संघ के अध्यक्ष  बताया कि केवल लखनऊ में ही 445 स्कूलों का मर्जर होने जा रहा है, लेकिन शिक्षकों की नियुक्ति को लेकर कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं दिए गए हैं। कई शिक्षक, जो वर्षों से एक ही स्कूल में कार्यरत हैं, अब स्थानांतरण के डर से चिंतित हैं। उनकी शिकायत है कि मर्जर के बाद उनकी नौकरी की स्थिरता खतरे में पड़ सकती है।

शिक्षकों की जवाबदेही और लापरवाही

यह सच है कि मर्जर की स्थिति के लिए केवल सरकारी नीतियाँ ही जिम्मेदार नहीं हैं। कई स्कूलों में छात्रों की संख्या कम होने की वजह शिक्षकों की लापरवाही भी है। बेसिक शिक्षा विभाग ने बार-बार निर्देश जारी किए कि शिक्षक बच्चों का नामांकन बढ़ाने के लिए प्रयास करें, लेकिन कई शिक्षकों ने इस जिम्मेदारी को नजरअंदाज किया। इसके परिणामस्वरूप, कई स्कूलों में छात्रों की संख्या या तो 50 तक नहीं पहुँची या फिर घटकर 50 से कम हो गई।

इसके अलावा, बायोमैट्रिक हाजिरी जैसी व्यवस्थाओं का शिक्षकों ने जमकर विरोध किया, ताकि उनकी उपस्थिति पर निगरानी न हो। यह लापरवाही न केवल शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित कर रही है, बल्कि स्कूलों के बंद होने का एक प्रमुख कारण भी बन रही है। शिक्षकों की यह प्रवृत्ति कि वे अपनी जिम्मेदारियों से भागें और आरामदायक जीवन जीने की चाह रखें, मर्जर की प्रक्रिया को और जटिल बना रही है।

निजीकरण की आशंका: 5000 स्कूल निजी हाथों में?

मर्जर की प्रक्रिया के साथ-साथ एक और गंभीर मुद्दा सामने आया है—निजीकरण। सरकार ने फैसला किया है कि बंद होने वाले स्कूलों में ताला नहीं लगेगा, बल्कि इनमें बाल वाटिका और आंगनबाड़ी बाल वाटिका के रूप में प्री-प्राइमरी कक्षाएँ शुरू की जाएँगी। लेकिन इन कक्षाओं के लिए नियुक्त स्टाफ निजी होगा। इससे यह आशंका बढ़ रही है कि सरकार धीरे-धीरे परिषदीय स्कूलों को निजी हाथों में सौंप रही है।

उत्तर प्रदेश में लगभग 5000 परिषदीय स्कूलों के मर्जर की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है, और इसे निजीकरण का पहला चरण माना जा रहा है। विपक्षी नेता ने इस कदम को शिक्षा के अधिकार (RTE) और संविधान के अनुच्छेद 21A का उल्लंघन बताया है। उनका कहना है कि यह निर्णय दलित, पिछड़े, और गरीब बच्चों की शिक्षा को और कठिन बनाएगा, क्योंकि गाँवों में स्कूलों के बंद होने से बच्चे दूर के स्कूलों में पढ़ने के लिए मजबूर होंगे।

बेसिक शिक्षा विभाग के अधिकारियों की भूमिका

स्कूलों में नामांकन कम होने की एक और प्रमुख वजह बेसिक शिक्षा विभाग के अधिकारियों की लापरवाही है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE) के तहत, किसी सरकारी स्कूल के 1 किलोमीटर की परिधि में निजी स्कूल को मान्यता देने का प्रावधान नहीं है। इसके बावजूद, विभागीय अधिकारियों ने इस नियम का उल्लंघन करते हुए कई निजी स्कूलों को मान्यता दी है। इससे सरकारी स्कूलों में नामांकन पर असर पड़ा है, क्योंकि अभिभावक अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजने को प्राथमिकता दे रहे हैं।

निजी स्कूलों की वजह से ग्रामीण बच्चों की शिक्षा पर बुरा असर पड़ रहा है। यदि सरकारी स्कूलों को बंद कर नजदीकी स्कूलों में मर्ज किया जाता है, तो बच्चे दूर के स्कूलों में पढ़ने के लिए कैसे जाएँगे? ग्रामीण क्षेत्रों में सार्वजनिक परिवहन की कमी और सुरक्षा की चिंताएँ इस समस्या को और गंभीर बनाती हैं।

मर्जर के दुष्परिणाम

परिषदीय स्कूलों के मर्जर के कई नकारात्मक प्रभाव सामने आ सकते हैं:

शिक्षकों की नौकरी पर खतरा: सरप्लस शिक्षकों को दूर के स्कूलों में स्थानांतरित किया जाएगा, जिससे उनकी नौकरी की स्थिरता प्रभावित होगी।

ग्रामीण बच्चों की शिक्षा पर असर: गाँवों में स्कूल बंद होने से बच्चे, खासकर लड़कियाँ, दूर के स्कूलों में पढ़ने से वंचित हो सकते हैं।

-निजीकरण का बढ़ता खतरा: निजी स्टाफ की नियुक्ति और निजी स्कूलों को मान्यता देने से सरकारी शिक्षा व्यवस्था कमजोर हो सकती है।

सामाजिक असमानता: दलित, पिछड़े, और गरीब बच्चों की शिक्षा तक पहुँच और कठिन हो जाएगी, जो सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है।

समाधान और सुझाव

इस समस्या के समाधान के लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:

1. नामांकन बढ़ाने के लिए अभियान: शिक्षकों और अधिकारियों को मिलकर गाँवों में जागरूकता अभियान चलाना चाहिए, ताकि अभिभावक अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजें।

2. निष्पक्ष जांच: निजी स्कूलों को मान्यता देने वाले अधिकारियों की जाँच हो और नियमों का उल्लंघन करने वालों पर कार्रवाई हो।

3. शिक्षकों की जवाबदेही: बायोमैट्रिक हाजिरी और अन्य निगरानी तंत्र लागू किए जाएँ, ताकि शिक्षक अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करें।

4. ग्रामीण क्षेत्रों में सुविधाएँ: स्कूलों में बुनियादी सुविधाएँ, जैसे स्वच्छ पानी, शौचालय, और परिवहन, उपलब्ध कराए जाएँ, ताकि बच्चे स्कूल आने के लिए प्रेरित हों।

5. निजीकरण पर अंकुश: निजी स्कूलों को अनावश्यक मान्यता देने की प्रक्रिया पर रोक लगे और सरकारी स्कूलों को मजबूत करने पर ध्यान दिया जाए।

परिषदीय स्कूलों का मर्जर उत्तर प्रदेश में शिक्षा व्यवस्था को बेहतर बनाने का एक प्रयास हो सकता है, लेकिन इसके दुष्परिणामों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। शिक्षकों की चिंता, बच्चों की शिक्षा तक पहुँच, और निजीकरण की आशंका इस नीति के प्रमुख चुनौतीपूर्ण पहलू हैं। सरकार को चाहिए कि वह शिक्षकों और अभिभावकों के साथ संवाद स्थापित करे और ऐसी नीतियाँ बनाए, जो शिक्षा के अधिकार को सुनिश्चित करें। साथ ही, बेसिकशिक्षा विभाग के अधिकारियों की जवाबदेही तय हो, ताकि निजी स्कूलों को अनुचित मान्यता देने की प्रक्रिया रुके। केवल एक संतुलित और पारदर्शी दृष्टिकोण ही उत्तर प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था को सशक्त बना सकता है।

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