भारत की स्वतंत्रता के बाद से ही ‘स्वदेशी’ का विचार आर्थिक और सामाजिक क्षेत्रों में जोर पकड़ता रहा है। आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसे नेता देशवासियों से स्वदेशी उत्पादों को अपनाने का आह्वान कर रहे हैं। जीएसटी में सुधार और अन्य नीतिगत बदलावों से भारतीय वस्तुओं को बढ़ावा मिल रहा है। लेकिन इस स्वदेशी अभियान में शिक्षा का क्षेत्र लगभग उपेक्षित सा दिखता है। मेडिकल, इंजीनियरिंग या अन्य उच्च शिक्षा के लिए छात्रों को देश के विश्वविद्यालय चुनने के प्रति प्रोत्साहन क्यों नहीं दिया जा रहा? आजादी के प्रारंभिक वर्षों में विश्वविद्यालयों की कमी थी, इसलिए विदेश जाना मजबूरी थी। लेकिन अब जब देश में सैकड़ों विश्वविद्यालय और हजारों कॉलेज उपलब्ध हैं, तब भी छात्र विदेश की ओर क्यों रुख कर रहे हैं? यह सवाल न केवल शिक्षा प्रणाली की कमजोरियों को उजागर करता है, बल्कि राष्ट्र निर्माण के मार्ग में एक बड़ी बाधा भी दर्शाता है। इस मुद्दे पर लखनऊ हाईकोर्ट के अधिवक्ता अखंड पांडेय ने गहराई से चर्चा की।
विदेशी शिक्षा की बढ़ती लालसा: कारण और प्रभाव
आजकल भारतीय छात्रों में विदेशी डिग्री की चमक इतनी तेज हो गई है कि लाखों युवा माता-पिता की कमाई विदेशी विश्वविद्यालयों में उड़ा रहे हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, विदेश में पढ़ाई करने वाले भारतीय छात्रों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश प्रमुख गंतव्य बने हुए हैं। इन देशों ने भारतीय छात्रों को आकर्षित करने के लिए विशेष नीतियां अपनाई हैं, जैसे आसान वीजा और छात्रवृत्ति। लेकिन यह प्रवृत्ति देश की शिक्षा प्रणाली पर सवाल उठाती है।
एक ओर जहां युवा मेडिकल की पढ़ाई के लिए विदेश भटक रहे हैं, वहीं गांव-कस्बों में अच्छे डॉक्टरों की कमी सताती है। मेडिकल क्षेत्र में विदेश जाने वाले छात्रों की संख्या भी चिंताजनक है। कई देशों में भारतीय छात्र मेडिकल कोर्स कर रहे हैं, जो भारत की स्वास्थ्य सेवाओं को कमजोर कर रही है। इंजीनियरिंग में भी स्थिति ऐसी ही है। आईआईटी जैसे संस्थानों की संख्या बढ़कर हो चुकी है, लेकिन इनमें फैकल्टी की कमी एक बड़ी समस्या बनी हुई है। कई संस्थानों में स्थायी शिक्षकों की कमी के कारण अस्थायी स्टाफ पर निर्भरता बढ़ गई है, जिससे शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है।
आर्थिक बोझ और सामाजिक असमानता
विदेश में पढ़ाई का खर्च आम परिवारों के लिए आसमान छूता है। एक छात्र के लिए एक से दो करोड़ रुपये तक का व्यय आम बात है। लेकिन भारत की अधिकांश आबादी, जो राशन पर निर्भर है, के लिए यह संभव नहीं। यह सुविधा केवल उच्च वर्ग के राजनेताओं, नौकरशाहों और अमीर परिवारों तक सीमित है। वे अपने बच्चों को विदेश भेजकर प्रोत्साहित करते हैं, लेकिन देशी संस्थानों में सुधार के लिए कोई प्रयास नहीं करते। इससे सामाजिक असमानता बढ़ती है और प्रतिभाएं केवल अमीरों तक सीमित हो जाती हैं।
देशी शिक्षा प्रणाली की चुनौतियां
देश में उच्च शिक्षा के संस्थान भले ही बढ़ गए हों, लेकिन गुणवत्ता में कमी साफ दिखती है। दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे केंद्रीय संस्थान, जो कभी शिखर पर थे, अब रैंकिंग में गिरावट का शिकार हो रहे हैं। यहां दाखिले के लिए कॉमन टेस्ट लागू होने के बावजूद अपेक्षित सुधार नहीं आया। नई शिक्षा नीति को लागू हुए वर्ष बीत चुके हैं, लेकिन परिणाम निराशाजनक हैं। शिक्षकों की भर्ती प्रक्रिया पारदर्शी नहीं है। जहां छात्रों के लिए कई स्तर की परीक्षाएं होती हैं, वहीं प्रोफेसरों की नियुक्ति और पदोन्नति में कोई कठोर मानदंड नहीं। कुछ शिक्षक संगठन सुधारों का विरोध करते हैं, जिससे कक्षाएं अनियमित रहती हैं और छात्रों का फीडबैक नजरअंदाज होता है।
आईआईटी और आईआईएम जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों में भी समस्याएं बढ़ रही हैं। यहां शिक्षकों की कमी के कारण शोध और पाठ्यक्रम प्रभावित हो रहे हैं। इससे मेधावी छात्र विदेश की ओर आकर्षित होते हैं। लेकिन सबसे दर्दनाक पहलू है छात्रों में बढ़ता तनाव। हाल के वर्षों में इन संस्थानों में आत्महत्या के मामले दिल दहला देने वाले हैं। अकादमिक दबाव, पारिवारिक अपेक्षाएं और मानसिक स्वास्थ्य की अनदेखी इसके प्रमुख कारण हैं। सुप्रीम कोर्ट तक मामला पहुंच चुका है और एक समिति गठित की गई है, लेकिन केवल समिति से समस्या हल नहीं होगी।
शिक्षकों की कमी: जड़ समस्या
आईआईटी में फैकल्टी की रिक्तियां एक बड़ी चुनौती हैं। कई संस्थानों में आधी से अधिक पद खाली पड़े हैं। अस्थायी शिक्षकों पर निर्भरता से शिक्षा का स्तर गिर रहा है। विश्व स्तर पर हो रहे परिवर्तनों को अपनाने में देरी हो रही है। भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने का प्रयास सराहनीय है, लेकिन शोध और वैज्ञानिक नवाचार में अभी लंबा सफर तय करना है।
स्वदेशी शिक्षा का महत्व: समाधान के रास्ते
शिक्षा समाज और विश्व में परिवर्तन का सबसे शक्तिशाली हथियार है। स्वदेशी शिक्षा को अपनाकर ही हम सशक्त भारत का निर्माण कर सकते हैं। इसके लिए मेरिट और योग्यता को सर्वोपरि रखना होगा। धर्म, जाति या क्षेत्र से ऊपर उठकर प्रतिभा का चयन हो। अमेरिकी विश्वविद्यालयों की तरह, जहां केवल लक्ष्य और क्षमता पर जोर दिया जाता है, हमें भी वैसा ही दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। नोबेल विजेता वेंकट रमण का कथन याद रखें: वे जाति-धर्म नहीं, बल्कि प्रतिभा देखते हैं।
नई शिक्षा नीति में कुछ प्रगति हुई है, जैसे कक्षा 5 और 8 के लिए नो डिटेंशन पॉलिसी समाप्त करना और मूलभूत साक्षरता पर जोर। लेकिन पूर्ण कार्यान्वयन के लिए 2030 तक का लक्ष्य अभी दूर है। एक उच्च स्तरीय समिति गठित हो, जो शिक्षकों की भर्ती के लिए यूपीएससी जैसी प्रक्रिया बनाए। मानसिक स्वास्थ्य के लिए काउंसलिंग को अनिवार्य किया जाए। जागरूकता अभियान चलाकर छात्रों को देशी संस्थानों की ताकत बताई जाए।
युवा शक्ति का सदुपयोग
भारत की सबसे बड़ी पूंजी इसकी युवा आबादी है। ये युवा मेहनती हैं और विश्व स्तर पर उनकी काबिलियत मान्य है। लेकिन सही दिशा न मिलने से प्रतिभा बर्बाद हो रही है। स्वदेशी शिक्षा से न केवल आर्थिक बचत होगी, बल्कि मस्तिष्क पलायन रुकेगा। गांवों तक गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पहुंचेगी, तो डॉक्टरों और इंजीनियरों की कमी दूर होगी।
क्रांतिकारी सुधार की आवश्यकता
स्वदेशी शिक्षा भारत को वैश्विक पटल पर मजबूत बनाएगी। आर्थिक स्वदेशी के साथ शिक्षा में भी स्वदेशी अपनाएं, तो हर क्षेत्र में प्रगति होगी। सरकार, शिक्षाविदों और समाज को मिलकर कदम उठाने होंगे। मेरिट आधारित चयन, पारदर्शी भर्ती और मानसिक स्वास्थ्य पर फोकस से हम सशक्त राष्ट्र का सपना साकार कर सकते हैं। आइए, इस दिशा में संकल्प लें कि हमारी शिक्षा हमारी जड़ों से जुड़ी रहे और विश्व को रोशन करे।